सुने हो रहे है गॉंव , बंजर हो खलियान ,एक घोऱ सन्नाटा पसरा है घर आँगन में जँहा कभी बच्चो की किलकारियां और चहचाहट सुनने को मिलती थी ,खाली हो गये है बैठक और ख़त्म हो गये वो ठिकाने जंहा बुजुर्ग लोग सुबह शाम बैठ कर ठहाके लगाते थे। चाह विकास की थी लेकिन उज्जड़ गए है जौनसार का गॉंव समाज ,विकास की चाह और बढती बेरोजगारी ने यँहा के युवाओ को गॉंव समाज भूलकर पलायन के लिए एक नया आयाम दिया है। वो कुछ इस तरह इस समस्या से प्रभावित हुवा है की वह इससे बहार निकलना ही नही चाहता है।
आधुनिकरण ने जौनसार के लोगो इस तरह लाचार बनाया है की पहाड़ की कठिनाई पूर्ण जिंदगी सामने वो सरल पलायन को गले लगाता है। पहाड़ की चुनोतियों पूर्ण सफर के डर से वो उस मिट्टी को भूल जाना पसंद करता है जिसने उसकी व उसके पूरकों की कई पीढ़ियों को पला पोषा है। निर्मम सोयी पड़ी है मिट्टी बंजर जंग का बोझ ले के जो कभी जीवन रूपी अनाज उपजाति थी वो आज घास , भांग और नवनीकरण आपदा आये मलवे बोझ तले धूप में तप रही है , बरसात में भीग रही है और ठण्ड में ठिठुर रही है।
पलायन की वजह से गाँव में घटती आबादी ने सबको जंजोर के रख दिया है। गाँव में लगते ताले देख बहुत से लोग अकेलेपन के भय से ताले लगाने को तैयार है। बच्चो की उत्तम शिक्षा व उनके उज्जवल भविष्य और अपने लिए सरल व आरामदायक रोजगार की चाह में लोग इस तरह गाँव से विस्तापित हो रहे हैकि गाँव में सनाटा सा पसर रहा है। आज के इस शिक्षित समाज और सरकार इस उभरती समस्या वाकिफ है। लेकिन इस समस्या को रोकने कोई कदम नहीं उठाया गया। जौनसार बावर शिक्षा , चिकित्सा व अन्य मुलभुत सुविधा अभाव में पलायन रूपी समस्या में घिर रहा है।
उत्तप्रदेश से विभाजित होने के बाद जौनसार बावर ही नहीं बल्कि गढ़वाल व कुमाऊं के सभी पहाड़ी गाँवो यही हाल है। पलायन की बढ़ती इस समस्या को कुछ जानकार सरकार व कुछ ख़ुद को जिमेदार ठहराते है। साथ ही साथ कई बार प्राकृतिक आपदाओं के कारण कृषि पर इसका सीधा असर दिखाई दे रहा है इन सभी वजहों के कारण राज्य का विकास भी प्रभावित होता दिखाई देता है।
जौनसार बावर के कोटि कानासर में विगत अगस्त माह में '' पलायन एक चिंतन '' नामक कार्येक्रम एक पहल के रूप में आयोजित किया गया था। इस कार्येक्रम में प्रदेश राज्यसभा सांसद '' प्रदीप टम्टा'' , मोहन सिंह रावत , प्रसिद्ध जनकवि , गीतकार लोकगायक ''नरेंद्र सिंह नेगी '' व गांववासियों ने पलायन जैसी समस्या पर अपने विचार रखे। उनके मतानुसार हमें पलायन जैसे समस्या के लिए सब्र के साथ इस चिंतन करने की आवश्कता है हमें वैसे सारे तथ्य और दस्तावेज इकट्टा कर के इस समस्या से निपटने लिये एक मास्टर प्लान बनाना चाहिए।
पलायन का सीधा असर कृषि पर भी पड रहा है भारत सरकार ने हाल ही में पंतनगर विवि से 1950 से लेकर अब तक कृषि की स्थिति से संबंधित एक रिपोर्ट मांगी थी। इसमें 2050 की आबादी का आकलन कर अनाज की आवश्यकता आदि की बाबत निष्कर्ष बताने को भी कहा गया था। विवि ने जो रिपोर्ट भेजी है उसके तथ्य चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसार अभी पूरे देश में करीब 14 करोड़ हेक्टेयर खेतिहर जमीन है। बढ़ते शहरीकरण व खेती की जमीन का अन्य कामों में इस्तेमाल आदि के चलते 2050 तक लगभग दो करोड़ हेक्टेयर तक खेती योग्य जमीन कम हो जाएगी। इस हिसाब से एक दिन में 1,441 हेक्टेयर से ज्यादा उपजाऊ भूमि खत्म हो रही है। जबकि 2050 में आबादी बढ़कर एक अरब 70 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। इतनी आबादी के लिए सालाना 37 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी।
कृषि भूमि के लगातार सिकुड़ते जाने पर पंतनगर विवि की टीम ने गंभीर चेतावनी देते हुए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सीधे रिपोर्ट में कृषि भूमि के दूसरे कामों में इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने की संस्तुति की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आबादी की आवश्यकता के अनुरूप अनाज जुटाने के लिए भविष्य में अपरंपरागत क्षेत्र मसलन पर्वतीय, रेगिस्तान और तटवर्ती इलाके की जमीनों को खेती योग्य बनाने के प्रयास करने होंगे। साथ ही मौजूदा खेती योग्य जमीन की उपज बढ़ानी होगी। बहुमंजिला इमारतों को बढ़ावा देना होगा। इसके अलावा राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान व्यवस्था भी और सशक्त बनानी होगी। अनुसंधान पर अधिक खर्च करना होगा। स्पष्टतः कृषि भूमि का अविवेकी दोहन भविष्य के लिए बड़े खतरे को जन्म देने वाला साबित होने वाला है।
यह विडंबना ही है कि जिस पंतनगर विश्वविद्यालय को कृषि योग्य भूमि की दशा-दिशा पर अध्ययन का भार सौंपा गया था उसकी ही कृषि योग्य भूमि कल-कारखानों के निर्माण के कारण आधी से भी कम रह गई है। विश्वविद्यालय की कृषि योग्य भूमि की ज्यादा खुर्द-बुर्द पिछले सात सालों में हुई है। ऊपर से जनपद में खेती की जमीन पर खुलेआम अवैध प्लॉटिंग हो रही है लेकिन शासन-प्रशासन अनजान बना हुआ है। उत्तराखंड की तराई की जमीन खेती के लिए सर्वोत्तम है। यहां का चावल विदेशों में भी भेजा जाता है। लेकिन अब पिछले कुछ सालों में तराई की लगभग 30 हजार एकड़ भूमि पर अनाज की जगह कंक्रीट की फसल उग रही है।
हमें और हमारी सरकार विशेषतः राज्य सरकार को लगातार हो रहे पलायन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए| इसके लिए सर्वप्रथम गावों में उद्योग-धंधों की स्थापना करनी चाहिए| दूसरा कदम यहाँ पर उचित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए| स्कूलों और कालेजों में मुख्य शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा को भी बढ़ावा देना चाहिए और समय- समय पर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए जिसमें युवा वर्ग को स्वरोजगार के गुणों के बारे में बताया बताया जाय और स्वरोजगार अपनाने के लिए प्रेरित किया जाय| कृषि की स्थिति में सुधार के लिए खेतों की चकबंदी की जानी चाहिए और किसानों को अच्छे किस्म के बीज व खाद के अलावा ब्याजमुक्त ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि लोग कृषि को भी रोजगार के रूप में अपना सकें और इसके जरिये अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण भली-भांति कर सके और लगातार हो रहे पलायन पर ब्रेक लग सके
source :
- http://hindi.indiawaterportal.org/node/37733
- http://bedupako.com/blog/2012/03/29/why-do-youth-migrate-from-uttarakhand/#axzz4TdrmDVkQ
- http://hindi.indiawaterportal.org/node/54305